ओ री चिरैया,
अंगना में फिर आजा रे ..
सूना सा लगता है ये आँगन तुम बिन ,
आये थे तुम इस मरुस्थल में बारिश की फुहार बनकर ।
हमको भरमाकर ,इतना तरसाकर ,
कहाँ चले गए तुम ??
जब भी होती है आहट मेरे दर पे ,
मैं चौक उठती हूँ ....
ये सोचकर की शायद तुम लौट आये हो,
मैं झूम उठती हूँ ।
किन्तु..तुम तो चले गए ....
अहसासों को जगाकर ,सबको आपना बनाकर ,
सुनहरे स्वप्न दिखाकर ....
तुम चले गए ।
वो आँख-मिचोनी ,पकडं -पकड़ाई ,
जिन्हें छोड़ आई थी मैं,अपने बचपन के सायो में ,
उन्हें फिर खेलना सिखा गए ....
मुझे तुम फिरसे बच्चा बना गए ।
जब भी बजती है मंदिर में घंटी ,
सब ढूँढ़ते है तुमको ....
चाहती हूँ कितना कि कोई प्रसाद लेके भागे ,
मैं पीछे,वो आगे
पर तुम नहीं दिखते कहीं ..........
झूले भी सूने लगते है,
बगिया भी सूनी लगती है,
तुम नहीं हो ...
तो कोई बात नहीं जचती है।
वो लोरी सुनना ,वो गोद में सोना ,
वो हठ करना,वो भप करना ,
वो "माँ" कहना ,वो "ना" कहना,
वो उच्छलना और गिरना ,
फिर गिरके संभलना ।
दिन के हर पहर में ....
यादों की हर लहर में ....
मुझे तुम याद आते हो ।
सुनो.............
सूना सा है यह आँगन तुम बिन
टूटती हूँ मैं , पल-पल ... छिन -छिन ।